Friday, August 31, 2007

बिदापत नाच और नइ सवेरे कि आशा कि आशा

आज आपके सामने फणीश्वरनाथ रेणु जी कि लिखी रिपोर्ताज के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ । ये मेरे मन को एकदम से छू गया....... आज भी रेणु जी कि रचनायें उतनी हिन् प्रासंगिक हैं जितनी पहले थीं । तो पढिये उनकी लिखी कुछ अनमोल रचनाओं के अंश ........

बिदापत नाच का अंश

बाप रे .....
बाप रे कौन दुर्गति नहीं भेल
सात साल हम सूद चुकाओल
तबहुँ उरिन नहिन भेलौं ।
कोल्हुक बरद सन खटलौं रात-दिन
करज बाढत हि गेल
थारि बेंच पटवारि के देलियेन्ह
लोटा बेंच चौकिदारी
बकरी बेंच सिपाही के देलियेन्ह
फटक नाथ गिरधारी ।

नइ सवेरे कि आशा

ब्योधा जाल पसारा रे हिरणा ब्योधा जाल पसारा...
झुठ सुराज के फ़ंद रचावल
लंबी-लंबी बतिया के चारा
मुहँ पर गाँधीजी के नाम बिराजे
बगल में रखलबा दुधारा
रे हिरणा..............

अरे मोटिया धोति, टोपी पहन के फ़िरतबा
रँगल सियारा
मँहगी की चक्की में रोये किसनवँ,
मौज करे जमींदारा रे ।
गाँधीजी के बेंचत चोरबाजर में
लीडर सेठ साहुकारा रे
हिरणा ब्योधा जाल पसारा रे ..............

फणीश्वरनाथ रेणु

Tuesday, August 28, 2007

कहां जाएं

कहां जाएं


पथ्राया
नेहों का टाल
कहां जाएं

गली-गली
फैले हैं जाल
कहां जाएं

देख-देख मौसम के धोखे
बंद किये हारकर झरोखे
बैठे हैं
अंधियारे पाल
कहां जाएं

आये ना रंग के लिफ़ाफ़े
बातों के नीलकमल हाफें
मुरझाई
रिश्तों की डाल
कहां जाएं

कुह्रीला देह का नगर हैं
मन अपना एक खंडहर है
सन्नाटे
खा रहे उबाल
कहां जाएं ?

-हरीश निगम

Sunday, August 26, 2007

कर्मेंदु शिशिर जी के जन्मदिन पर विशेष प्रस्तुती

कर्मेंदु शिशिर जी का जन्म २६ अगस्त १९५३ को हुआ थाये हिंदी के जानेमाने कथाकार, आलोचक और शोधार्थीहैंजन्मदिन कि ढ़ेर सारी शुभकामनाएं हमारी तरफ से ..... । ये अभी फिलहाल पटना में रहते हैं ।
आएये आज इस अवसर पे पढते हैं उनकी कुछ कवितायेँ .......

कुछ आदिवासी गीत
()
हे प्रिये
ऐसा लग रहा है
मेरा ह्रदय धीरे-धीरे पिघल रहा है
मेरी आत्मा के अतल में
आज भी मौजूद हैं
युवा हलचलों से भारी स्मृतियां
पेड पर पनपी अनगिन कंछियां !

()
हे प्रिये
तुम्हारे ह्रदय को जीत लिया है किसी ने
कहीं और राम गया है तेरा मन
बिसर चुकी हो सारी स्मृतियां
लताएं बहती हैं
इधर-उधर
हदों के पार तक

()
हे प्रिये
तुम्हें याद नहीं
कभी मुड़कर भी नहीं देखा
वो घरोंदे
धूल-मिट्टी कि दुनिया में
बचपन की गृहस्थी
खाना बनाने का कौतुक
कुछ भी तुम्हें याद नहीं
वह देखो
किस तरह अरण्य में खो चुका है सब-कुछ!

()

हे प्रिये
पूरा जंगल, पूरा पृथ्वी, पूरा आकाश
कहीं तुम्हें देख नहीं पाता मैं
प्रेम कि डोर थी
आख़िर क्यों तोड़ दी तुमने
देखो-वहां देखो
भयंकर बाढ़ में बहते चले जाते
बचपन को
हम दोनों की विपुल किलकारियाँ
सपनों को-बहते हुए देखो
यह नहीं
आख़िर क्यों बहती रहती है-रात-दिन!

()

हे प्रिये
मेरे भीतर जेठ तप रहा है
सचमुच दूर हो रही हो तुम
उजाड़-सा लगता है वन
एक हुक उठती है भीतर से
फैलती, दबोचती है अंदर -बाहर
ठहरे हुए समय में
आख़िर कैसे गुजरता है जीवन?

Friday, August 24, 2007

रामधारी सिंह "दिनकर"


रामधारी सिंह "दिनकर का जन्म 23 अगस्त १९०८ को हुआ था
जन्म स्थान: ग्राम सिमरिया, जिला बेगूसराय, बिहारज्यादा जानकारी के लिये यहाँ देखें

मैं न वह जो स्वपन पर केवल सही करते
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ
और उसपर नींव रखता हूँ नये घर की
इस तरह दीवार फ़ौलादी उठाता हूँ ।
- दिनकर

आइये तो करते हैं उनके द्वारा लिखी गयी रचनाओं का पाठ ।

आग की भीख

धुन्धली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुहँ को छिपा तिमिर मेन कयोन तेज सो रहा है ?

दाता पुकर मेरि, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे,
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढती जवानियों का श्रृंगार माँगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश रहा है या सौभग्य का सितरा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदर्ष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधन माँगता हूँ
धुर्व की कठिन घडि में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ


अन्य रचनाओं के लिये यहाँ देखें

Thursday, August 23, 2007

रामराज काहू नहिं व्यापा " भाग - १"

तुलसीदास दिल्ली जा रहा थाएक भगत ने टिकिट ले दिया जो पहले दर्जे में बैठा थाबगल में एक संसद सदस्य थेउन्होने चमचों द्वारा पहनायी गयी मालाएँ उतारीं और पसीना पोंछते हुए बोले - बड़ी मुसीबत हैलोग मुझे इतना चाहते हैं कि तंग हो जाता हूँ


तुलसी ने कहा - आदमी को सूखी रहने के लिए दो चीजें जरुरी हैं-- भ्रम और मूर्खतावो दोनों आपमें हैं, इसलिए आप खूब सूखी हैंअरे नेता महराज ये मालाएँ नहिं साँप हैंजिन्होंने ये मालाएँ पह्नायीं वे आपसे प्रेम नहिं नफरत करते हैंमगर उन्हें आपसे कम कराना है , तो माला पहनते हैंमैं तो उनके चेहरे से समझ रहा थाजिस दिन आप राजपद पर नहिं होंगे, उस दिन ये लोग आपको जूते संसद


संसद
सदस्य ने मुझे गौर से देखाबोला--आप साधू हैं, तो आपको बतलाने में कोई हर्ज नही हैमैं भ्रम में नही हूँये हरामजादे एक से बढकर एक बदमाश हैंकुछ साल पहले मेरा जानी दुश्मन चुन लिया गया था, तो उसे भी ऐसी ही मालाएँ ये पहनाते थे । यह रजनीति है स्वामीजि ! कोई भगवत भजन नहिं है । तमाम गुण्डों, बदमाशों, तसकरों तक्सचोरों, दो नम्बरियों को पटाकर रखना पड़ता है, तब चुनाव जीतते हैं । इस बार तो दंगा कराना पड़ा--जिसमें पचास आदमी मारे गये और दो सौ झोपड़े जले । मैंने खुद गाय का गोश्त मन्दिर में डलवाया था । पुजारीको पाँच सौ रुपये दिये थे । बड़ी कठिन हो गयि है राजनीति

Wednesday, August 22, 2007

हरिशंकर परसाई के जन्मदिन पर विशेष

हरिशंकर परसाई जी का जन्म २२ अगस्त, १९२४ को जमानी गाँव, जिला होशंगाबाद(मध्य प्रदेश ) में हुआ था
आज सुबह से हिन् इक्षा थी कि कुछ लिखा जाये परसाई जी के बारे में , अभी जा के समय मिला है

रचना की मूल अंतर्वस्तु और उसके भाषा-शिल्प-दोनों ही स्टारों पर परसाई जी जनता के रचनाकार थेचाहे भाषा या भूषा का सवाल हो, चाहे धर्म, संस्कृति , कला, साहित्य अथवा प्रदेश का-उन्होने उन पर व्यापक जनोंमुख नजरिए से विचार कियाऔपने बेजोड़ व्यंगात्मक तेवर के सहारे अपनी समूची समकालीनता को खंघालते हुए पाठकीय मानस को जाग्रत और परिष्कृत करने की जैसी कोशिश उनके यहाँ मिलती है, वैसी इधर समूचे भारतीय साहित्य में दुर्लभ है


--साभार राजकमल पर्काशन

Monday, August 20, 2007

एक गधे की आत्मकथा


कृष्ण चंदर के लोकप्रिय उपन्यास "एक गधे की आत्मकथा " में आदमी की भाषा में बोलने वाले एक गधे के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं पर करारा व्यंग्य किया गया हैइस उपन्यास के विचित्र संसार में सरकारी दफ्तरों के निठल्ले आफिसर, लाइसेंस के चक्कर में घूमने वाले व्यवसायी, चुनाव के जोड़-तोड़ में लगे नेता, साहित्य के मठाधीश , माडर्न आर्ट के नम पर जनता को चक्कर में डालने वाले कलाकार, अपने ही सुर से मोहित संगीतज्ञ, सौंदर्य के नम पर भोंदेपन को अपनाने वाली निठ्ल्ली महिलाएँ मानो कार्टून कि शक्ल में चलते फिरते नजर आते हैं

एक बहुत हिन् बेहतरीन पुस्तक है, एक बार अवश्य हिन् पढ़ेंवर्तमान परिवेश के बारे में एकदम सटीक चित्रण है इस पुस्तक मेंकहानी के अंत में थोड़ी पकड़ ढीली हो गयी है फिर भी बार - बार पढने लायक पुस्तक हैं

Wednesday, August 15, 2007

क्या है आजादी : एक नजर - भाग 1

क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हे एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है
- धूमिल
आएये देखते हैं हमारे यहाँ के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग क्या सोचते हैं आजादी के बारे में ......

बनवारी गौतम, हाथ रिक्शाचालक, कोलकाता ..........

आजादी से हमें क्या लेना-देना ? हमारे दिमाग में तो हर अगली ख़ुराक के लिए रोटी जुगाडने कि चिन्ता है । हमारे पुरखों कि पुरी उर्जा रिक्शा पर लदे इंसानी भार को ढोने खर्च होती थी और अब हम भी यही कर रहे हैं । हम कभी अपनी फतेहलिसे उबार नहीं पाये । रोटियों कि चिन्ता गयी हिन् नही तो कहॉ से मालूम होगा आजादी का मर्म ?

ये आलेख कादम्बिनी में छपा है और मैं इसका बाकी का भाग जल्द हिन् आपलोगों के सामने प्रस्तुत करुँगा। तो तबतक करें हम और आप मंथन कि क्या सही में आजादी हमारे यहाँ सारे वर्ग के लोगों को मिल गयी है या केवल एक खास वर्ग को मिली है , और अगर आपका उत्तर है हाँ तो क्या हम और आप नही जिम्मेदार हैं कहीं इस वर्तमान व्यवस्था के लिए ........

- साभार कादम्बिनी

Tuesday, August 14, 2007

वीर




सच् है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं

मुहँ से कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण गहते हैं ,
जो पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं

है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है

गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भितर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है


- रामधारी िसंह "दिनकर"



Monday, August 13, 2007

वीर तुम बढे चलो


वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

हाथ में ध्वजा रहे ,
बाल - दल सजा रहे ,
ध्वज कभी झुके नहीं ,
दल कभी रुके नहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

सामने पहाड़ हो ,
िसंह की दहाड़ हो ,
तुम िनडर हटो नहीं,
तुम िनडर डटो वहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

मेघ गरजते रहें
मेघ बरसते रहें
िबजिलयाँ कड़क उठें
िबजिलयाँ तड़क उठें

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

प्रात हो िक रात हो
संग हो ना साथ हो
सुर्या से बढे चलो
चंद्र से बढे चलो ।

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

Saturday, August 11, 2007

इस जल पर्लय में

आजकल हमारे पर्देश िबहार में पानी ने पर्लय मचा रखा हैंफनीश्वरनाथ रेणु जी ने इसके बारे में अपने िरपोतार्ज में बड़ा हीं सजीव िचत्रण िकया हैतो आइये आज पढते हैं फनीश्वरनाथ रेणु जी की रचना
इस जल पर्लय में













Wednesday, August 01, 2007

असत्याभास(Paradox) क्या है ?

वह बात जो कि वास्तव में सच हो पर देखने में झूठा लगे उसे असत्याभास कहते । तो आइये आज करते हैं ऐसे हिन् कुछ
असत्याभास के बारे में बातचीत.....
  1. रुस्सेल्ल(Russell) असत्याभास: "O is a member of O, if and only if, O is not a member of O." This is known as Russell's paradox. " 'क' सदस्य है 'क' का, अगर 'क' सदस्य नही है 'क' का "। शायद आपको ये पढ़ कर नही सही लग रहा होगा पर अगर आप थोडा समुच्चय सिद्धांत का अध्यन करें तो पता चलेगा कि ये बातें सही हैं। बाद में रुस्सेल्ल ने अपने एक आलेख में इसका हल भी बताया। अगर आप वो आलेख पढना चाहते हैं तो मुझे पत्र लिखिए। यह आलेख JSTOR पे उपलब्ध है... Mathematical Logic as Based on the Theory of Types
  2. जनम्दीन(Birthday) असत्याभास: अगर हम २३ लोगों का यादृच्छिकता से(randomly) चयन करते हैं तो हमेशा ५० % प्रायिकता(सम्भावना) होगी कि लोगों का जनम्दीन एक हिन् होगा५० लोगों के समुह में प्रायिकता ९७ % और १०० लोगों के लिए तो ये बढ कर ९९.९९९६ % तक पहुच जाती हैहै ना अस्चार्य वाली बातअगर आप ज्यादा जानना चाहते हैं इस बारे में तो गूगल में खोजिये ना "Birthday Paradox".

आने वाले समय में और भी हम बातें करेंगे ऐसे हिन् अन्य प्रसिद्ध प्रायिकता के बारे में । अपने विचार जरुर प्रस्तुत किज्येगा इस आलेख के बारे में कैसा लगा आपलोगों को.......

प्रेमचन्द

प्रेमचंद जी के जनम्दिवास पे कुछ खास सामग्री तो नही ला पायाचलिये थोड़ी देर से हिन् सही नागार्जुन जी के द्वारा लिखी गयी प्रेमचंद कि जीवनी आपलोग के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ