आएये आज इस अवसर पे पढते हैं उनकी कुछ कवितायेँ .......
कुछ आदिवासी गीत(१)
हे प्रिये
ऐसा लग रहा है
मेरा ह्रदय धीरे-धीरे पिघल रहा है
मेरी आत्मा के अतल में
आज भी मौजूद हैं
युवा हलचलों से भारी स्मृतियां
पेड पर पनपी अनगिन कंछियां !
(२)
हे प्रिये
तुम्हारे ह्रदय को जीत लिया है किसी ने
कहीं और राम गया है तेरा मन
बिसर चुकी हो सारी स्मृतियां
लताएं बहती हैं
इधर-उधर
हदों के पार तक ।
(३)
हे प्रिये
तुम्हें याद नहीं
कभी मुड़कर भी नहीं देखा
वो घरोंदे
धूल-मिट्टी कि दुनिया में
बचपन की गृहस्थी
खाना बनाने का कौतुक
कुछ भी तुम्हें याद नहीं
वह देखो
किस तरह अरण्य में खो चुका है सब-कुछ!
(४)
हे प्रिये
पूरा जंगल, पूरा पृथ्वी, पूरा आकाश
कहीं तुम्हें देख नहीं पाता मैं
प्रेम कि डोर थी
आख़िर क्यों तोड़ दी तुमने
देखो-वहां देखो
भयंकर बाढ़ में बहते चले जाते
बचपन को
हम दोनों की विपुल किलकारियाँ
सपनों को-बहते हुए देखो
यह नहीं
आख़िर क्यों बहती रहती है-रात-दिन!
(५)
हे प्रिये
मेरे भीतर जेठ तप रहा है
सचमुच दूर हो रही हो तुम
उजाड़-सा लगता है वन
एक हुक उठती है भीतर से
फैलती, दबोचती है अंदर -बाहर
ठहरे हुए समय में
आख़िर कैसे गुजरता है जीवन?
No comments:
Post a Comment