Thursday, August 23, 2007

रामराज काहू नहिं व्यापा " भाग - १"

तुलसीदास दिल्ली जा रहा थाएक भगत ने टिकिट ले दिया जो पहले दर्जे में बैठा थाबगल में एक संसद सदस्य थेउन्होने चमचों द्वारा पहनायी गयी मालाएँ उतारीं और पसीना पोंछते हुए बोले - बड़ी मुसीबत हैलोग मुझे इतना चाहते हैं कि तंग हो जाता हूँ


तुलसी ने कहा - आदमी को सूखी रहने के लिए दो चीजें जरुरी हैं-- भ्रम और मूर्खतावो दोनों आपमें हैं, इसलिए आप खूब सूखी हैंअरे नेता महराज ये मालाएँ नहिं साँप हैंजिन्होंने ये मालाएँ पह्नायीं वे आपसे प्रेम नहिं नफरत करते हैंमगर उन्हें आपसे कम कराना है , तो माला पहनते हैंमैं तो उनके चेहरे से समझ रहा थाजिस दिन आप राजपद पर नहिं होंगे, उस दिन ये लोग आपको जूते संसद


संसद
सदस्य ने मुझे गौर से देखाबोला--आप साधू हैं, तो आपको बतलाने में कोई हर्ज नही हैमैं भ्रम में नही हूँये हरामजादे एक से बढकर एक बदमाश हैंकुछ साल पहले मेरा जानी दुश्मन चुन लिया गया था, तो उसे भी ऐसी ही मालाएँ ये पहनाते थे । यह रजनीति है स्वामीजि ! कोई भगवत भजन नहिं है । तमाम गुण्डों, बदमाशों, तसकरों तक्सचोरों, दो नम्बरियों को पटाकर रखना पड़ता है, तब चुनाव जीतते हैं । इस बार तो दंगा कराना पड़ा--जिसमें पचास आदमी मारे गये और दो सौ झोपड़े जले । मैंने खुद गाय का गोश्त मन्दिर में डलवाया था । पुजारीको पाँच सौ रुपये दिये थे । बड़ी कठिन हो गयि है राजनीति

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