Monday, August 13, 2007

वीर तुम बढे चलो


वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

हाथ में ध्वजा रहे ,
बाल - दल सजा रहे ,
ध्वज कभी झुके नहीं ,
दल कभी रुके नहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

सामने पहाड़ हो ,
िसंह की दहाड़ हो ,
तुम िनडर हटो नहीं,
तुम िनडर डटो वहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

मेघ गरजते रहें
मेघ बरसते रहें
िबजिलयाँ कड़क उठें
िबजिलयाँ तड़क उठें

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

प्रात हो िक रात हो
संग हो ना साथ हो
सुर्या से बढे चलो
चंद्र से बढे चलो ।

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

1 comment:

PD said...

क्या भैया, कहां से ये सब उठा कर लाते हैं? कुछ ऐसी यादें जो कभी भी मन के भीतर दम नहीं तोड़ सकती है, पर उसकी परछाईयां हल्की धुंधली परती जाती है। उस धुंधलाहट को आपने फ़िर से जीवित कर दिया। उसे फ़िर से नया जीवन दे दिया।