Monday, March 30, 2009

पगडंडियों का जमाना - भाग -१

हरिशंकर परसाई जी का व्यंग्य "पगडंडियों का जमाना " का पहला भाग पढिये ....आप देखेंगे की ये आज के दौर में कितना सार्थक और सटीक बैठता है ...
copyright@ Harishankar Parsai
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मैंने फिर इमानदार बन्ने की कोशिश की और फिर नाकामयाब रहा .
एक सज्जन ने मुझसे कहा की एक परिचित अध्यापक से कहकर मैं उनके लड़के के नंबर बढ़वा दूं . यों मैं उनका काम कर देता, पर बहुत अरसे बाद उसी दिन मुझे इमान की याद आयी थी और मैंने पूरी तरह ईमानदार बन जाने की प्रतिज्ञा कर ली थी . सज्जन की बात सुनकर मुझे पुराणी कथाएँ याद आ गयीं और मैंने सोचा की प्रतिज्ञा करते मुझे देर नहीं हुई की ये इन्द्र और विष्णु मेरी परीक्षा लेने आ पहुचें . उन्हें विश्वास नहीं है की युग-प्रवर्तक की लिस्ट में नाम खोजने लगते हैं. इसलिए ये देवता अब तपस्या शुरू होते हिन् परीक्षा लेने आ पहुचते हैं .

मैंने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और प्रकट कहा, " मैं इसे अनुचित और अनैतिक मानता हूँ . मैं यह काम नहीं करूँगा . "

मुझे आशा थी की अब ये मौलिक देवरूप में प्रकट होंगे और कहेंगे - 'वत्स, तू परीक्षा में खरा उतरा. बोल तुझे क्या चाहिए? हम वर देने के मूड में हैं. बोल हिंदी साहित्य के इतिहास में तेरे ऊपर एक अध्याय लिखवा दूं ? या कहे तो, किसी समीक्षक की तेरे घर में पानी भरने की ड्यूटी लगा दूं ?

वे मौलिक रूप में तो आये, पर वह रूप प्रसंता का न होकर रोष का था. वे भुनभुनाकर चले गए . मैंने सुना, वे लोगों से मेरे बारे में कह रहे थे - 'आजकल वह साला बड़ा ईमानदार बन गया है .'

मैं जिसे देवता समझ बैठा था वो तो आदमी निकला . मैंने अपनी आत्मा से पूछा, 'हे मेरी आत्मा, तू ही बता ! क्या गाली खाकर बदनामी करवाकर मैं इमानदार बना रहूँ ?

आत्मा ने जवाब दिया, 'नहीं, ऐसी कोई जरुरत नहीं है . इतनी जल्दी क्या पड़ी है ? आगे जमाना बदलेगा, तब बन जाना .
मेरी आत्मा बड़ी सुलझी हुई बात कह देती है कभी-कभी . अच्छी आत्मा 'फोल्डिंग' कुर्सी की तरह होनी चाहिए . जरुरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया . जब कभी आत्मा अड़ंगा लगाती है, तब उसे समझ में आता है की पुराणी कथाओं के दानव अपनी आत्मा को दूर किसी पड़ी तोते में क्यों रख देते थे . वे उससे मुक्त होकर बेखटके दानवी कर्म कर सकते थे . देव और दानव में अब भी तो यही फर्क है --एक की आत्मा अपने पास हीं रहती है और दुसरे की उससे दूर .

मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमे किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में . अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सिख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी-किसी आदमी में रख देते है .

आत्मा ने कह दिया तो , मैंने ईमानदार बन्ने का इरादा त्याग दिया .

क्रमश: ...

4 comments:

Unknown said...

gobar babu, sahity pelne ke liye dhanyavad. khoob theliye, thellm thel ka jamana hi. kuch to rash niklega hi.
nikita

डॉ .अनुराग said...

गोया आपने तो खजाने की झलक दिखला दी .....

Sanjay Grover said...

***अच्छी आत्मा 'फोल्डिंग' कुर्सी की तरह होनी चाहिए . जरुरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया***

सफलता का यह सूत्र परसाईं जी ने दिया था या स्वेट मार्डन ने या किसी धांसूरामबापू ने !?

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत बढ़िया चर्चा बधाई .