Sunday, February 24, 2008

बढ़ो साथियों इंकलाब आ रहा है ...

बढ़ो साथियों इंकलाब रहा है

बढ़ो साथियों इंकलाब आ रहा है ।
ये नफरत को कदमों पे डाले हुए हैं
मोहब्बत मोहब्बत से पाले हुए हैं,
अदब को अदब से संभाले हुए है,
भरी दोपहर बेनकाब जा रहा हैबढ़ो ....

ये कांटे से कांटा निकलने चला है
मचलता हुआ दिल मचलने चला है,
जमाना जमाना बदलने चला है,
ज़माने को बढता रुआब रहा है

सहल हल निकलना, मिले सबको साहिल,
दुखेंगी आँखें, दुखेगा नहीं दिल,
ये हाथों की कुब्बत, ये पावों की मंजिल,
ये सूरत पे चड़ता शबाब रहा हैबढ़ो ....

समंदर समंदर की लहरों में डूबा,
गली , गांव , कस्बों में , शहरों में डूबा,
अँधेरा अंधेरे के पहरों में डूबा ,
सुरख लालो-लाल आफताब रहा हैबढ़ो ....

गिरा ही दिए ताज्गिरी ना रक्खी
खैरात रक्खी फकीरी ना रक्खी,
गरीबी ना रक्खी अमीरी ना रक्खी
चुकाता सभी का हिसाब रहा हैबढ़ो ....

बुरे का बुरा ये भलों का भला है,
ये हलचल उठी है, उठा जलजला है
ये कुदरत को मुट्ठी में लेकर चला है,
सबूतों की खोले किताब रहा हैबढ़ो ....

है गुस्से में, गुस्से पे हावी हुआ है,
समझ सोचकर इन्कलाबी हुआ है
ये हमले पे हमला जवाबी हुआ है,
ये नुस्खा नया लाजवाब रहा है
बढ़ो साथियों इंकलाब आ रहा है । ।

--सुदर्शन चक्र

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