Saturday, August 22, 2009

स्वाइन फ्लू और परसाई जी ...

'स्वाइन फ्लू ' जब से आया और जिस तरह से मीडिया में इसका कवरेज हुआ मुझे हर दिन परसाई जी याद आते रहे ....काश अगर परसाई जी होते तो जरुर कुछ इसके ऊपर लिखते . इस बीमारी ने क्या-क्या नहीं किये...
अभी समाचारपत्र में पढ़ रहा था की एक 'स्वाइन फ्लू' का 'किट' आ गया है , कुछ लोग तरह-तरह की दवाएं इसके नाम पर बेच रहे हैं . गुजरात में आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री ४ गुनी बढ़ गयी है इस बीमारी के आने के बाद ....ये बाहर का बीमारी स्वदेशी दवाओं का प्रचार कर रहा है ..क्या कहने इसके . वैसे कई होम्योपैथ वाले भी 'एंटी स्वाइन फ्लू ' दवाएं धड्ले से दे रहे हैं ...

खैर छोडिये इन बातों को और आपलोग परसाई जी के एक पुराने निबंध का आनंद लीजिये . ये स्वाइन फ्लू पर तो नहीं पर डेंगू के ऊपर है . शायद इसमें अभी काफी त्रुटियां मिले आपको, उसके लिए माफ़ी चाहूँगा ...समय मिलते सुधार कर फिर इसे गद्यकोश पर भी चढा दूंगा..

---------------------------------------------------------------------------------------------
डेंगू,अध्यात्म और लेखक

इधर एक बीमारी फैली है . नाम उसका भंयंकर है- डेंगू . तेज बुखार और शरीर में बहुत पीडा. जोड़ टूट जाते हैं . जनभाषाओं में 'हड्डी-तोड़' बुखार कहते हैं. हिम्मततोड़ भी है . अगर इस बीमारी का नाम 'डेंगू' न होकर मधुरिमा होता, तो बीमारी के पहले कोई डरता नहीं . हो जाती तो दर्द कम अखरता . मरीज सोचता, यह तो मधुरिमा है . तपेदिक का नाम 'राजयक्ष्मा' कितना अच्छा है . और 'करोंरी थ्राम्बसिस' से रोगी समझ हिन् नहीं पता की जरा देर में खटिया कड़ी होनेवाली है . रोग कितना बुरा हो, नाम अच्छा होना चाहिए . अमरीकी शासक हमले को 'सभ्यता का प्रसार' कहते हैं, वो इतने बुरे नहीं लगते हैं . बम बरसते हैं, तो मरने वाले सोचते हैं सभ्यता बरस रही है . चीनी नेता लड़कों के हुल्लड़ को 'सांस्कृतिक क्रांति' कह्ते हैं, तो पित्नेवाले नागरिक सोचता है की मैं सुसंस्कृत हो रहा हूँ . सांस्कृतिक क्रन्तिवाले सुन्दर बाल-वाले नागरिक को पास की नाई के दुकान में घसीटकर उसका सर घुटवा देते हैं . बाल सवर्ण बुजुरुआ प्रविर्ती है न ! घुटे सर पर जब नागरिक हाथ फेरता होगा, तो कहता होगा-वह, सर पर सांस्कृतिक क्रांति हो गयी . यह 'सांस्कृतिक क्रांति' और आगे बढ़ी, तो कभी आदमी की तरह रहना भी बुजुरुआ प्रविर्ती घोषित हो जाएगा . तब किस जानवर की तरह जीना क्रान्तिकारी जीवन कहलायेगा ? अभी मालूम हो जाए तो शुरू कर दिया जाये .


कह रहा था की रोग कितना ही बुरा हो, उसकी कठोरता कम करने के लिए हम कम-से-कम इतना तो कर हीं सकते हैं, की उसका मीठा-सा नाम रख दें. आश्रम के नाम से चकलाघर चले तो भला हीं लगता है . नैतिक सुधर के नाम से अगर लड़कियाँ भगाई जाएँ, तो किसी को एतराज नहीं होता . डेंगू का नाम मधुरिमा होता, तो मेरा यह दोस्त घबडाकर न कहता- अरे यार, हमें भी डेंगू हो गया . दृश्य दूसरा होता . मैं पूछता - क्यों? बिस्तर पर क्यों पड़े हो ? वह मुस्कुराकर कहता-- थोडी मधुरिमा है . मीठा-मीठा दर्द हो रहा है . मगर नाम के डर के कारन वह १०१ डिग्री बुखार में ही आध्यात्मिक ज्ञान बडबडा रहा था . यों बिना बुखार के वह द्वान्धात्मक भौतिकवाद की बात करता है . बुखार में वह जिव, ब्रम्ह और माया की बात कर रहा था . संसार असार है . शरीर नाशवान है . आत्मा अमर है . ब्रम्ह ही सत्य है . मैंने कहा--यार, तू बड़ा भाग्यवान है . ऋषि-मुनि जिंदगी भर की तपस्या करते थे, तब उन्हें अध्यात्म-बोध होता था . और बाधाएं कितनी थीं--अप्सरा की, दुसरे ऋषि से इर्ष्या की . मगर तुझे सिर्फ १०१ डिग्री बुखार में ही अध्यात्म-बोध हो गया . क्या डेंगू अध्यात्मिक बीमारी है ? तपस्या और बुखार में क्या कोई फर्क नहीं है ? क्या अध्यातम एक तरह का 'डिलीरियम ' है ? अगर है तो इस वक्त शहर में हजारों ज्ञानी हैं. वे डेंगू के बुखार के जरिये आध्यात्मिक भूमिका में पहुच गए हैं .


यों मुझे शक हुआ की यह अभिनय कर रहा है . मैंने कहा भी की यार, १०१ डिग्री में इतना अध्यात्म नहीं आता . १०५-१०६ में आ सकता है . तुम थोड़े बुखार में नाटकीय संभावनाएं खोज रहे हो . राजनीती से लेकर बुखार तक में नाटकीयता प्रभावित करती है . चुनाव में ऊँची जाती का संपन्न उम्मीदवार किसान के घर जाकर कहता है - दददा आज तो हम तुम्हारे घर रोटी खाकर हीं जायेंगे . बाद में किसान सारे गाँव में कहता है - इत्ते बड़े आदमी हैं, पर घमंड बिलकुल नहीं है . (सावधान ! यह नुस्खा पहले आम चुनाव का है . आगामी चुनाव में कोई उम्मीदवार या नाउम्मीदावार इसे काम में न लायें . नुक्सान का जिम्मेदार मैं नहीं . बात यह है की जनता की समझ लगातार बढती गयी है, पर नेता की उतनी रह गयी है )
बात चुनाव की नहीं, नाटकीयता की है . बिना नाटक के काम करो कोई चर्चा नहीं होती . इसका सबसे 'ट्रेजिक' उदाहरण शत्रुघ्न है . दशरथ के चारो लड़कों में सबसे कम नाम इसी का हुआ. बाकी तीनों भाईओं में खूब नाटकीयता थी . मर्यादा पुरुषोतम की तो बात हीं निराली है . लक्ष्मण अजब नाटकीयता से पत्नी को छोड़कर भाई के साथ हो लिए . उन्हें तो अमर होना था. भारत खडाऊं रखकर नंदी ग्राम जा बसे . सब जिम्मेदारी से बरी . बेचारा शत्रुघ्न एक तो गृहस्थी चलाता रहा -- गृहस्थी चलाना बनवास से बड़ा पराक्रम है . फिर तो राज्य का शासन चलाता रहा . यह बड़ा काम था . अगर वह ऐसा न करता, तो राम लौटकर क्या पा लेते ? पर शत्रुघ्न की कोई खास क़द्र नहीं हुई . उसने नाटकीय अंदाज में कुछ नहीं किया .


शत्रुघ्न का दृष्टान्त मैएँ इसलिए दिया की यह अध्यात्म में दुबे मेरे मित्र के डिपार्टमेन्ट का जान पड़ता है . वह भुनभुनाया--जिसे डेंगू नहीं हुआ, वह इस कष्ट को नहीं समझ सकता . तुम्हें (इश्वर चाहेगा) होगा, तब जानोगे की यह नाटक है या नहीं . जानने के लिए होना जरुरी है . इसलिए लोग लेखक के लिए दुःख भोगना जरुरी समझते हैं . नहीं होता तो देने लगते हैं . मुझे डेंगू के दुःख की अनुभूति होनी चाहिए . तुलसीदास को बालतोड़ हुआ था . वे पके बालतोड़ को छूने की पीडा को चरम पीडा मानते थे . लिखा है की राम के राज्याभिषेक की तैयारी की बात सुनकर कैकेयी को ऐसी पीडा हुई जैसे पका बालतोड़ छू दिया हो . महाकवि को जरुर बालतोड़ हुआ था, वर्ना वे एस न लिखते . यह रिसर्च डाक्टरेट के लायक है .


मुझे डर पैदा हो गया . मित्र अध्यात्मिक भूमिका में कह रहा था की तुम्हे डेंगू होगा . शुरू मन से कही गयी बुरी बात जरुर फलवती होती है . क्षुब्ध कामना उतनी कारगर नहीं होती . पुराणों में तपस्वियों के वर और शाप का अनुपात १:३ है.कोई भी टटोल करके देख सकता है . सिद्ध पुरुष गाली ज्यादा देते हैं और भक्त सुनकर खुश होते हैं . मैं डरा की इस बीमार मित्र की बात सही न हो जाए. डर मेरे चारों तरफ है . शहर की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा हमेशा बिस्तर पर पड़ा रहता है . कम्पाउंडरों को डॉक्टर का दर्जा मिल गया है . जिन डॉक्टरों के पास कोई टिंक्चर लगवाने भी नहीं जाता था, उनके दिए हुए 'एंटी बायोटिक्स ' लोग खा रहे हैं .


कहते हैं डेंगू अपनी मौलिक बीमारी नहीं है . बहार से आयी है . फ्लू भी सुना है, जापान से आया है . सांस्कृतिक आदान-प्रदान की संधियाँ होती हैं, मगर रोग आ जाते हैं. बीमारियाँ अंतर्राष्ट्रीय हो गयीं. हम बाहर की बीमारी ग्रहण करने के लिए बहुत तत्पर रहते हैं . हमने अपनी कोई बीमारी किसी को दी है, मैं नहीं जनता . निर्यात अपना कमजोर है--सामान का हो , चाहे बीमारी का . सुना है, भारतीय गाँजा और भाँग पश्चिम में बहुत पसंद किये जाते हैं . ये धार्मिक नशा है . साधू गाँजा पीकर त्रिकालदर्शी हो जाता है . आल्ड्स हक्सले भी मानता था . नशों के बदले में हम बीमारी ले लेते हैं. पश्चिम को और नशा चाहिए, पूर्व को और बीमारी चाहिए . ज्यों-ज्यों पश्चिम का नशा बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों इधर ज्यादा बीमारी भी बढती जाती है . अपनी अर्थ-व्यवस्था को डेंगू हो चूका है . लेटती है तो उठा नहीं जाता . बिठा दो, तो लुढ़क जाती है . पूछता हूँ --माताजी, यह क्या हो गया? कहती है-- बेटा, डेंगू हो गया . बहार से 'इन्फेक्शन' आया था . मेरे बेटे रूपये को भी डेंगू हो गया था . कितना दुबला गया बेचारा .


यह 'इन्फेक्सन' कौन फैलता है ? कहते हैं, आम तौर पर मछ्हर इसे फैलाते हैं . मच्छरों को बीमारी धोने के सिवा कोई काम नहीं. शेर हाथी या बैल 'इन्फेक्शन' नहीं ढोते. मछरों से सावधान रहना चाहिए . वे अब अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क्वाले हो गए हैं . जो बीमारी की जगहें हैं, वहां अपने यहाँ से मछ्हरों को नहीं जाने देना चाहिए . वे बीमारी ले आयेंगे . भारत सर्कार को इसका विशेष ध्यान रखा चाहिए . बीमारी देनेवाले देशों को अपने यहाँ से मछर न भेजा करें . पहले की असावधानी का नतीजा भुगत रहे हैं . डेंगू ले गया अर्थ-व्यवस्था को .

(लेखक को डेंगू हो गया . यह लेख इतना ही लिखा हुआ ८-१० दिनों तक पड़ा रहा . )

बीमारियाँ असहनशील हो गयी है . वे अपना मजाक और आलोचना बर्दास्त नहीं करती . मैं डेंगू के सम्बन्ध में मजाक कर रहा था . उसने बदला ले लिया . मुझे दबोच लिया . मेरा डर बढ़ गया है . बीमारियाँ बदले पर उतर आयीं हैं. मैंने कई बिमारियों को नाराज किया है . अगर वे सब सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक बीमारियाँ जिनका मैंने उपहास किया, बदला लेने लगीं तो लेखक का क्या होगा ? क्या बिमारियों से समझौता कर लूं ? कह दूं की तुम सब खूब फैलो . तुम्हारी जय हो . बस मुझे बचाती रहो .

--हरिशंकर परसाई

कहीं परसाई जी की तरह मुझे भी 'स्वाइन फ्लू' ना हो जाए ..:)

6 comments:

Archana Chaoji said...

परसाई जी का एक बढिया निबंध -----आज ही पढा----पहले कुछ भी पढने मे रुची नही थी---स्वाईन फ़्लू के सन्दर्भ सही रहा---

Unknown said...

मज़ा आ गया......

शरद कोकास said...

परसाई जी क एजाने से यह नुकसान तो हुआ है क्योकि रजनैतिक व सामाजिक स्थितियों पर वे तत्काल टिप्पणी करते थे . आज से कई सौ साल बाद भी जब यह देखना होगा कि कब क्या हुआ था हमे परसाई जी की रचनाये ही याद आयेंगी

Yunus Khan said...

छा गए गुणेश्‍वर । एकदम सही टायमिंग पर लाए हो परसाई जी का डेंगू । एक एक पंक्ति में गहराई नजर आई ।

Unknown said...

sahi hia mere bhayi :)

PD said...

badhiya hai.. :)