Wednesday, June 18, 2008

लोक कवियों की वाणी

आज जब हम आपस में जाती-पाती, धर्म, क्षेत्रीयता और ना जाने किन-किन कारणों से आपस में हर रोज उलझतेरहते हैं, कभी-कभी तो हम एक दुसरे का खून भी बहा जाते हैं तो कौन हमें सही मार्ग दिखायेगा, तो मुझे लगता है कीहमारे पुराने ज़माने के लोक कवि और उनकी कवितायेँ हिन् हमें सही राह पर ले जा सकती हैं

संत कबीर की वाणी :

मोकों कहाँ ढूंढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में
ना तो कौनो क्रिया-कर्म में, नही योग बैराग में
खोजी होय तो तुरतै मिलिहों, पल भर की तलास में
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब सवांसो की स्वांस में

प्रसिद्ध कश्मीरी लोक कवियत्री Lal Ded के कुछ वाख देखिये लल्लेश्वरी जी भी कबीर जी के जैसा हिन् कुछकह रही हैं ....
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थल-थल में बसता है शिव हिन् ,
भेद कर क्या हिंदू-मुस्लमान
ज्ञानी है तो स्वयं को जान
वाही है साहिब से पहचान
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खा-खाकर कुछ पायेगा नहीं ,
खाकर बनेगा अहंकारी
सम खा तभी होगा संभावी ,
खुलेंगी साँकल बंद द्वार की

कवियत्री Lal Ded के बारे में ज्यादा जानने के लिए आप यहाँ देखें ....




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